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क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक थे रासबिहारी बोस

देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले क्रांतिकारियों का जब जिक्र होगा, महान क्रांतिकारी रासबिहारी बोस का नाम हमेशा आदर के साथ लिया जाता रहेगा। उन्होंने न केवल देश में कई क्रांतिकारी...

क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक थे रासबिहारी बोस
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 20 Jan 2010 04:43 PM
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देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने वाले क्रांतिकारियों का जब जिक्र होगा, महान क्रांतिकारी रासबिहारी बोस का नाम हमेशा आदर के साथ लिया जाता रहेगा। उन्होंने न केवल देश में कई क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि विदेश में रहकर भी वह देश को आजादी दिलाने के प्रयास में आजीवन लगे रहे।

दिल्ली में वायसराय लार्ड चार्ल्स हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने गदर की साजिश रचने और बाद में जापान जाकर इंडियन इंडिपेंडेस लीग और इंडियन नेशनल आर्मी की स्थापना करने में रासबिहारी बोस की महत्वपूर्ण भूमिका रही। हालांकि देश को आजाद करने के लिए किए गए उनके ये प्रयास सफल नहीं हो पाए, लेकिन इससे स्वतंत्रता संग्राम में निभाई गई उनकी भूमिका का महत्व कम नहीं हो जाता है।

रासबिहारी बोस का जन्म 25 मई 1886 को बंगाल प्रांत में बर्दवान के सुबालदह गांव में हुआ। उन्होंने अपनी शिक्षा चंदननगर में हासिल की, जहां उनके पिता विनोदबिहारी बोस नियुक्त थे। रासबिहारी बोस बचपन से ही देश की आजादी का सपना देखा करते थे और क्रांतिकारी गतिविधियों में उनकी गहरी दिलचस्पी थी।

प्रारंभ में रासबिहारी बोस ने देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान में कुछ समय तक हेड क्लर्क के रूप में काम किया। उसी दौरान उनका क्रांतिकारी जतिन मुखर्जी के अगुवाई वाले युगातंर के अमरेन्द्र चटर्जी से परिचय हुआ और वह बंगाल के क्रांतिकारियों के साथ जुड़ गए। बाद में वह अरविंदो के राजनीतिक शिष्य रहे जतीन्द्रनाथ बनर्जी उर्फ निरालम्ब स्वामी के सम्पर्क में आने पर संयुक्त प्रांत, वर्तमान में उत्तर प्रदेश, और पंजाब के प्रमुख आर्य समाजी क्रांतिकारियों के करीब आए।

दिल्ली में वायसराय लार्ड हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना बनाने में रासबिहारी की प्रमुख भूमिका रही थी। अमरेन्द्र चटर्जी के एक शिष्य बसंत कुमार विश्वास ने उन पर बम फेंका लेकिन निशाना चूक गया। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस रासबिहारी बोस के पीछे लग गई और वह बचने के लिए रात में रेलगाडी से देहरादून भाग गए और आफिस में इस तरह काम करने लगे मानो कुछ हुआ ही नहीं हो। अगले दिन उन्होंने देहरादून के नागरिकों की एक सभा भी बुलाई, जिसमें उन्होंने वायसराय पर हुए हमले की निन्दा की। ऐसे में कौन संदेह कर सकता था कि इस हमले की साजिश रचने और उसे अंजाम देने में प्रमुख निभाने वाला उनके सामने ही मौजूद है।

1913 में बंगाल में बाढ़ राहत कायरें के दौरान रासबिहारी बोस जतिन मुखर्जी के सम्पर्क में आए, जिन्होंने उनमें नया जोश भरने का काम किया। रासबिहारी बोस इसके बाद दोगुने उत्साह के साथ फिर से क्रांतिकारी गतिविधियों के संचालन में लग गए। देश को आजाद कराने के लिए उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गदर की योजना बनाई। फरवरी 1915 में अनेक भरोसेमंद क्रांतिकारियों की सेना में घुसपैठ कराने की कोशिश की गई।

युगांतर के नेताओं का विचार था कि यूरोप में युद्ध होने के कारण चूंकि अभी अधिकतर सैनिक देश से बाहर गए हुए हैं, इसलिए बाकी को आसानी से हराया जा सकता है लेकिन यह कोशिश नाकाम रही और कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। ब्रिटिश खुफिया पुलिस ने रासबिहारी बोस को भी पकड़ने की कोशिश की लेकिन वह उनके हत्थे नहीं चढे़ और भागकर 1915 में जापान पहुंच गए, जहां उन्होंने कई वर्ष निर्वासन में बिताए।

जापान में भी रासबिहारी बोस चुप नहीं बैठे और वहां के अपने जापानी क्रांतिकारी मित्रों के साथ मिलकर देश की आजादी के लिए प्रयास करते रहे। ब्रिटिश सरकार अब भी उनके पीछे लगी हुई थी और वह जापान सरकार से उनके प्रत्यर्पण की मांग कर रही थी, इसलिए वह लगभग एक साल तक अपनी पहचान और रिहाइश बदलते रहे।

1916 में जापान में ही रासबिहारी बोस ने प्रसिद्ध पैन एशियाई समर्थक सोमा आइजो और सोमा कोत्सुको की पुत्री से विवाह कर लिया और 1923 में वहां के नागरिक बन गए। जापान में वह पत्रकार और लेखक के रूप में रहने लगे। जापानी अधिकारियों को भारतीय राष्ट्रवादियों के पक्ष में खडा़ करने और देश की आजादी के आंदोलन को उनका सक्रिय समर्थन दिलाने में भी रासबिहारी बोस की भूमिका अहम रही। उन्होंने 28 मार्च 1942 को टोक्यो में एक सम्मेलन बुलाया जिसमें इंडियन इंडीपेंडेंस लीग की स्थापना का निर्णय किया गया। इस सम्मेलन में उन्होंने भारत की आजादी के लिए एक सेना बनाने का प्रस्ताव भी पेश किया।

22 जून 1942 को रासबिहारी बोस ने बैंकाक में लीग का दूसरा सम्मेलन बुलाया, जिसमें सुभाष चंद्र को लीग में शामिल होने और उसका अध्यक्ष बनने के लिए आमंत्रित करने का प्रस्ताव पारित किया गया। जापान ने मलय और बर्मा के मोचरें पर कई भारतीय युद्धबंदियों को पकडा़ था। इन युद्धबंदियों को इंडियन इंडीपेंडेंस लीग में शामिल होने और इंडियन नेशनल आर्मी [आईएनए] का सैनिक बनने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

आईएनए का गठन रासबिहारी बोस की इंडियन नेशनल लीग की सैन्य शाखा के रूप में। सितम्बर 1942 को किया गया। बोस ने एक झंडे का भी चयन किया जिसे आजाद नाम दिया गया। इस झंडे को उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के सुर्पुद किया। रासबिहारी बोस शक्ति और यश के शिखर को छूने ही वाले थे कि जापानी सैन्य कमान ने उन्हें और जनरल मोहन सिंह को आईएनए के नेतृत्व से हटा दिया लेकिन आईएनए का संगठनात्मक ढांचा बना रहा।

बाद में इसी ढांचे पर सुभाष चंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के नाम से आईएनएस का पुनर्गठन किया।
देश को ब्रिटिश शासन की गुलामी से मुक्ति दिलाने की आस लिए 21 जनवरी 1945 को अपने वतन से मीलों दूर यह परवाना आजादी की शमां पर निसार हो गया। उनके निधन से कुछ समय पहले जापानी सरकार ने उन्हें आर्डर आफ द राइजिंग सन के सम्मान से अलंकृत किया था।