(Translated by https://www.hiragana.jp/)
"कणाद": अवतरणों में अंतर - विकिपीडिया
No edit summary
टैग: Manual revert Reverted मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
सफाई की। व्यवस्थित किया।
(13 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 20 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1:
{{Infobox scholar|birth_date=अस्पष्ट,६-४ बीसीई|notable_ideas=परमाणुवाद|major_works=[[वैशेषिक सूत्र]]|school_tradition=[[वैशेषिक दर्शन]]|image=Kanada.png}}
{{Infobox philosopher
| name = कणाद
| birth_date = Unclear, 6th – 4th century BCE
| school_tradition = [[Vaisheshika]] school of Hinduism
| notable_ideas = Atomism
}}
 
'''कणाद''' एक ऋषि थे। [[वायुपुराण]] में उनका जन्म स्थान [[प्रभास पाटण]] बताया है। स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने [[सूत्र]] रूप में लिखा। ये "उच्छवृत्ति" थे और धान्य के कणों का संग्रह कर उसी को खाकर तपस्या करते थे। इसी लिए इन्हें "कणाद" या "कणभुक्" कहते थे। किसी का कहना है कि [[कण]] अर्थात् 'परमाणु तत्व' का सूक्ष्म विचार इन्होंने किया है, इसलिए इन्हें "कणाद" कहते हैं। किसी का मत है कि दिन भर ये समाधि में रहते थे और रात्रि को कणों का संग्रह करते थे। यह वृत्ति "[[उल्लू]]" पक्षी की है। किस का कहना है कि इनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ईश्वर ने उलूक पक्षी के रूप में इन्हें शास्त्र का उपदेश दिया।
 
आधुनिक दौर में अणु विज्ञानी [[जॉन डाल्टन]] के भी हजारों साल पहले महर्षि कणाद ने यह रहस्य उजागर किया कि [[द्रव्य]] के परमाणु होते हैं।
 
उनके अनासक्त जीवन के बारे में यह रोचक मान्यता भी है कि किसी काम से बाहर जाते तो घर लौटते वक्त रास्तों में पड़ी चीजों या अन्न के कणों को बटोरकर अपना जीवनयापन करते थे। इसीलिए उनका नाम कणाद भी प्रसिद्ध हुआ।<ref name="bhaskar">{{cite web
 
महान परमाणुशास्त्री आचार्य कणाद 6 सदी ईसापूर्व गुजरात के प्रभास क्षेत्र द्वारका के निकट में जन्मे थे। इन्होने वैशेषिक दर्शनशास्त्र की रचना की। दर्शनशास्त्र वह ज्ञान है जो परम सत्य और प्रकृति के सिद्धांतों और उनके कारणों की विवेचना करता है। माना जाता है कि परमाणु तत्व का सूक्ष्म विचार सर्वप्रथम इन्होंने किया था इसलिए इन्ही के नाम पर परमाणु का एक नाम कण पड़ा। महर्षि कणाद कहना था की पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, दिक्, काल, मन और आत्मा इन्हें जानना चाहिए। इस परिधि में जड़-चेतन सारी प्रकृति व जीव आ जाते हैं।
ईसा से 600 वर्ष पूर्व ही कणाद मुनि ने परमाणुओं के संबंध में जिन धारणाओं का उजागर किया, उनसे आश्चर्यजनक रूप से डाल्टन (6 सितम्बर 1766 – 27 जुलाई 1844) की संकल्पना मेल खाती है ये भी कह सकते हैं की डाल्टन ने यहीं से कॉपी किया। कणाद ने जॉन डाल्टन से लगभग 2400 वर्ष पूर्व ही पदार्थ की रचना सम्बन्धी सिद्धान्त को उजागर कर दिया था। महर्षि कणाद ने न केवल परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं अपितु उसको को 'परमाणु' नाम भी उन्होंने ही दिया तथा यह भी कहा कि परमाणु कभी स्वतंत्र नहीं रह सकते।
महर्षि कणाद ने यह भी कहा कि एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर 'द्विणुक' का निर्माण कर सकते हैं। यह द्विणुक ही आज के रसायनज्ञों का 'वायनरी मालिक्यूल' लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि अलग-अलग पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। वैशेषिक सूत्र में परमाणुओं को सतत गतिशील भी माना गया है तथा द्रव्य के संरक्षण (कन्सर्वेशन आफ मैटर) की भी बात कही गई है। ये बातें भी पश्चिम के विद्वानों द्वारा यहीं से ली गईं हैं।
ब्रह्माण्ड का विश्लेषण परमाणु विज्ञान की दृष्टि से सर्वप्रथम एक शास्त्र के रूप में सूत्रबद्ध ढंग से महर्षि कणाद ने आज से हजारों वर्ष पूर्व अपने वैशेषिक दर्शन में प्रतिपादित किया था। कुछ मामलों में महर्षि कणाद का प्रतिपादन आज के पश्चिमी विज्ञान से भी आगे जाता है। महर्षि कणाद कहते हैं, द्रव्य को छोटा करते जाएंगे तो एक स्थिति ऐसी आएगी जहां से उसे और छोटा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि उससे अधिक छोटा करने का प्रत्यन किया तो उसके पुराने गुणों का लोप हो जाएगा। दूसरी बात वे कहते हैं कि द्रव्य की दो स्थितियां हैं- एक आणविक और दूसरी महत्। आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत् यानी विशाल ब्रम्हाण। दूसरे, द्रव्य की स्थिति एक समान नहीं रहती है।
द्रव्य जिसमें "द्रव्यत्व जाति" हो वही द्रव्य है। कार्य के समवायिकरण को द्रव्य कहते हैं। द्रव्य गुणों का आश्रय है। पृथ्वी, जल, तेजस, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा तथा मनस् ये नौ "द्रव्य" कहलाते हैं। इनमें से प्रथम चार द्रव्यों के नित्य और अनित्य, दो भेद हैं। नित्यरूप को "परमाणु" तथा अनित्य रूप को कार्य कहते हैं। चारों भूतों के उस हिस्से को "परमाणु" कहते हैं जिसका पुन: भाग न किया जा सके, अतएव यह नित्य है। पृथ्वी परमाणु के अतिरिक्त अन्य परमाणुओं के गुण भी नित्य है।
जिसमें गंध हो वह "पृथ्वी", जिसमें शीत स्पर्श हो वह "जल" जिसमें उष्ण स्पर्श हो वह "अग्नि", जिनमें रूप न हो तथा अग्नि के संयोग से उत्पन्न न होने वाला, अनुष्ण और अशीत स्पर्श हो, वह "वायु", तथा शब्द जिसका गुण हो अर्थात् शब्द का जो समवायीकरण हो, वह "आकाश" है। ये ही 'पंचभूत' भी कहलाते हैं व यही पदार्थ की 5 अवस्थाएं भी बताई गयीं हैं।
उनका कहना है की परमाणुओं में एक प्रकार की क्रिया उत्पन्न हो जाती है, जिससे एक परमाणु, दूसरे परमाणु से संयुक्त हो जाते हैं। दो परमाणुओं के संयोग से एक "द्रव्यणुक" उत्पन्न होता है। पार्थिव शरीर को उत्पन्न करने के लिए जो दो परमाणु इकट्ठे होते हैं वे पार्थिव परमाणु हैं।
वे दोनों उत्पन्न हुए "दव्यणुक" के समवायिकारण हैं। उन दोनों का संयोग असमवायिकारण है और अदृष्ट, ईश्वर की इच्छा, आदि निमित्तकारण हैं। इसी प्रकार जल,अग्नि आदि शरीर के संबंध में समझना चाहिए। यह ध्यान रखना चाहिए कि सजातीय दोनों परमाणु मात्र ही से सृष्टि नहीं होती। उनके साथ एक विजातीय परमाणु, जैसे जलीय परमाणु भी रहता है। "द्रव्यणुक" में अणु-परिमाण है इसलिए वह दिखता नहीं है। "दवयणुक" से जो कार्य उत्पन्न होगा वह भी अणुपरिमाण का ही रहेगा और वह भी दृष्टिगोचर नही होगा।
अत: दव्यणुक से स्थूल कार्य द्रव्य को उत्पन्न करने के लिए "तीन संख्या" की सहायता ली जाती है। न्याय-वैशेषिक में स्थूल द्रव्य, स्थूल द्रव्य का महत्व परिमाणवाले द्रव्य से तथा तीन संख्या से उत्पन्न होता है, इसलिए यहाँ दव्यणुक की तीन संख्या से स्थूल द्रव्य "त्र्यणुक" या "त्रसरेणु" की उत्पत्ति होती है। चार त्र्यणुक से चतुरणुक उत्पन्न होता है। इसी क्रम से पृथ्वी तथा पार्थिव द्रव्यों की उत्पत्ति होती है। द्रव्य के उत्पन्न होने के बाद उसमें गुणों की भी उत्पत्ति होती है। सृष्टि की यही प्रक्रिया है।
विश्व में जो वस्तु उत्पन्न होती हैं वो पृथ्वी के सभी जीवों के भोग के लिए ही हैं। अपने पूर्वजन्म के कर्मों के प्रभाव से जीव संसार में जन्म लेता है। उसी प्रकार भोग के अनुकूल उसके शरीर, योनि, कुल, देश, आदि सभी होते हैं। जब वह विशेष भोग समाप्त हो जाता है, तब उसकी मृत्यु होती है। इसी प्रकार अपने अपने भोग के समाप्त होने पर सभी जीवों की मृत्यु होती है।
इनका ध्येय है कि बिना कारण के नाश हुए कार्य का नाश नहीं हो सकता। सृष्टि की तरह संहार के लिए भी परमाणु में ही क्रिया उत्पन्न होती है और परमाणु तो नित्य है, उसका नाश नहीं होता, किंतु दो परमाणुओं के संयोग का नाश होता है और फिर उससे उत्पन्न "द्रव्यणुक" रूप कार्य का तथा उसी क्रम से "त्र्यणुक" एवं "चतुरणुक" तथा अन्य कार्यों का भी नाश होता है।
महर्षि कणाद ने परमाणु को ही समझाने में अपना जीवन दिया, इसे ही सृष्टि का मूल तत्व माना। कहा जाता हैं कि जीवन के अंत में उनके शिष्यों ने उनकी अंतिम अवस्था में प्रार्थना की कि कम से कम इस समय तो परमात्मा का नाम लें, तो कणाद ऋषि के मुख से निकला पीलव: पीलव: पीलव: अर्थात् परमाणु, परमाणु, परमाणु।
<ref name="bhaskar">{{cite web
| url=http://religion.bhaskar.com/article/DHA-GYA-mega-story-inventions-of-indian-sages-incredible-indian-sages-and-sants-4233346-NOR.html?seq=3
| title='''बिग स्टोरी''' : हजारों साल पहले ऋषियों के आविष्कार, पढ़कर रह जाएंगे हैंरान
Line 50 ⟶ 21:
भौतिक जगत की उत्पत्ति सूक्ष्मातिसूक्ष्म कण परमाणुओं के संघनन से होती है- इस सिद्धांत के जनक महर्षि कणाद थे।
 
== वैशेषिक सूत्र ==
==गति के नियम==
{{मुख्य|वैशेषिकसूत्र}}
इसके अलावा महर्षि कणाद ने ही [[न्यूटन (इकाई)|न्यूटन]] से पूर्व गति के तीन नियम बताए थे। <ref>[http://hindi.webdunia.com/sanatan-dharma-article/के-असली-जनक-तो-ये-हैं-114080700018_1.htm परमाणु सिद्धांत के असली जनक तो ये हैं...] (वेबदुनिया)</ref>
'''वैशेषिकसूत्र''' कणाद मुनि द्वारा रचित वैशेषिक दर्शन का मुख्य ग्रन्थ है। इस पर अनेक टीकाएं लिखी गयीं जिसमें [[प्रशस्तपाद]] द्वारा रचित पदार्थधर्मसङ्ग्रह प्रसिद्ध है। कणाद ने वैशेषिकसूत्र में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय नामक छः पदार्थों का निर्देश किया है।
 
वैशेषिक दर्शन [[न्याय दर्शन]] से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में ([[वैशेषिकसूत्र]] में) लिखा। यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है। इसके सूत्रों का आरम्भ "अथातो धर्मजिज्ञासा" से होता है। इसके बाद दूसरा सूत्र है- "यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसिद्धिः स धर्मः" अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि होती है, वह [[धर्म]] है। इसके लिये समस्त अर्थतत्त्व को छः ' पदार्थों ' (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय) में विभाजित कर उन्हीं का मुख्य रूप से उपपादन करता है। वैशेषिक दर्शन और [[पाणिनीय व्याकरण]] को सभी शास्त्रों का उपकारक माना गया है-
: '' वेगः निमित्तविशेषात कर्मणो जायते। वेगः निमित्तापेक्षात कर्मणो जायते नियतदिक क्रियाप्रबन्धहेतु। वेगः संयोगविशेषविरोधी॥'' [[वैशेषिक दर्शन]]
 
: अर्थात्‌ वेग या मोशन (motion) पांचों द्रव्यों पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।
वैशेषिक सिद्धान्तों का अतिप्राचीनत्व प्रायः सर्वस्वीकृत है। महर्षि कणाद द्वारा रचित वैशेषिकसूत्र में [[बौद्ध धर्म|बौद्धों]] के सिद्धान्तों की समीक्षा न होने के कारण यह भी स्वीकार किया जा सकता है कि कणाद बुद्ध के पूर्ववर्ती हैं। जो विद्वान कणाद को बुद्ध का पूर्ववर्ती नहीं मानते, उनमें से अधिकतर इतना तो मानते ही हैं कि कणाद दूसरी शती ईस्वी पूर्व से पहले हुए होंगे। संक्षेपतः सांख्यसूत्रकार [[कपिल मुनि|कपिल]] और [[ब्रह्मसूत्र]]कार व्यास के अतिरिक्त अन्य सभी आस्तिक दर्शनों के प्रवर्त्तकों में से कणाद सर्वाधिक पूर्ववर्ती हैं। अतः वैशेषिक दर्शन को [[सांख्य दर्शन|सांख्य]] और [[वेदान्त]] के अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय दर्शनों का पूर्ववर्ती मानते हुए यह कहा जा सकता है कि केवल दार्शनिक चिन्तन की दृष्टि से ही नहीं, अपितु अतिप्राचीन होने के कारण भी इस दर्शन का अपना विशिष्ट महत्व है।
 
== सन्दर्भ ==
Line 60 ⟶ 33:
 
==इन्हें भी देखें==
*[[वैशेषिकसूत्र]]
*[[वैशेषिक दर्शन]]
 
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://www.shirishsapre.com/%E0%A4%95%E0%A4%A3%E0%A4%BE%E0%A4%A6-%E0%A4%B5%E0%A5%88%E0%A4%B6%E0%A5%87%E0%A4%B7%E0%A4%BF%E0%A4%95-%E0%A4%A6%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%B6%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%BE '''कणाद''' : वैशेषिक दर्शन के प्रणेता]{{Dead link|date=जूनअगस्त 20202023 |bot=InternetArchiveBot }}
 
{{आधार}}
{{भारतीय दर्शन}}
{{ऋषि}}
 
[[श्रेणी:भारतीय दर्शन]]
कणाद के अनुसार"किसी झरोखे से आती हुई रोशनी में उड़ते हुए कण का 16वां भाग परमाणु होता है"
"https://hi.wikipedia.org/wiki/कणाद" से प्राप्त