राजगीरी
पत्थर या ईंट की चिनाई करनेवालों को राज कहते हैं। और उनका काम व्यापक अर्थ में राजगीरी कहलाता है, किंतु व्यवहार में राजगीरी शब्द का प्रयोग प्राय: पत्थर की चिनाई के लिए ही हुआ करता है। ईंट का काम ईंट चिनाई ही कहा जाता है।
परिचय
[संपादित करें]आदि मानव द्वारा निर्मित अनगढ़ी रचनाएँ तो शायद आदि काल से ही बनती रही होगी, किंतु पत्थर का ऐसा काम जिसे राजगीरि कहा जा सकता है, अवश्य ही सभ्यता के विकास के साथ आया। राजगीरी के सबसे पुराने नमूने भारत और मिस्र के मंदिरों में मिलते हैं। इन प्राचीन संरचनाओं में से अनेक में बहुत बड़े बड़े पत्थर लगे हैं, जिन्हें देखकर आज आश्चर्य होता है कि हमारे पूर्वज उस युग में भी सात-सात, आठ-आठ सौ टन वजन के पत्थर न केवल खानों से निकालते थे, अपितु उन्हें बहुत ऊँचे उठाकर इमारतों में भी लगा लेते थे। यह सब कैसे किया जाता था, इसका भेद अभी तक नहीं मिल पाया।
अति प्राचीन राजगीरी में प्राय: हथौड़े की गढ़ाई ही मिलती है, छेनी या टाँकी की नहीं। गढ़ने और लगाने की विधियाँ प्राय: ऐसी ही थीं, जैसी आजकल हैं; अलबत्ता ढुलाई की असुविधा के कारण छोटे-छोटे पत्थर ही प्राय: लगाए जाते थे। टाँकी की गढ़ाई जब होने लगी तब तो ऐसी कला प्रादुर्भूत हुई, जिसे देखकर ऐसा लगता है कि वास्तुकला यदि पत्थर की न होती तो शायद बोल ही पड़ती।
उपकरण
[संपादित करें]राजगीरी के उपकरण मोटे तौर से पाँच वर्गों में बाँटे जा सकते हैं :
हथौड़े तथा मुँगरियाँ
[संपादित करें]भिन्न-भिन्न प्रकार के काम के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के हथौड़े होते हैं, जैसे, घन, इमारती हथौड़ा, कोरदार हथौड़ा, नुकीला हथौड़ा, सूतकी छोटा हथौड़ा, बसुली, तेशी आदि। लकड़ी के हथौड़े, अर्थात् मूँगरियाँ भी कई आकार-प्रकार की होती हैं।
आरे
[संपादित करें]खान से निकाला हुआ ताजा पत्थर गरम होता है और आसानी से कट जाता है। हाथ का आरा नरम पत्थर, जैसे पोरबंदर का चूने का पत्थर, काटने के काम आता है। यह बढ़ई के आरे जैसा ही होता है। बड़े बड़े खंड काटने के लिए दोहत्थी आरे होते हैं। बहुत बड़े खंड ढाँचायुक्त आरों से काटे जाते हैं। ये आरे 4 फुट से 15 फुट तक लंबे होते हैं और रस्सियों द्वारा गिरियों से लटकाए जाते हैं, ताकि चलानेवालों को उनका वजन न सँभालना पड़े। काटने का पत्ता सादे इस्पात का होता है, जिसमें दाँते बने होते हैं। कटाई करते समय पानी के साथ साथ बालू डाली जाती है। पानी स्नेहन का काम करता है और बालू काटती है।
छेनियाँ
[संपादित करें]छेनियाँ या टाँकियाँ हथौड़े से भी अधिक प्रकार की होती हैं, जैसे, छोटी, बड़ी, दाँतेदार, सपाट अर्थात चौरस, मोटी, पैनी, तेज, चौड़ी, सँकरी, नुकीली आदि। नुकीली टाँकी सुम्मा कहलाती है। बहुत बड़ी टाँकी सव्बल कहलाती है, जो किसी हद तक अपने वजन के कारण हथौड़े की चोटों की अपेक्षा नहीं रखती। इससे सुरंग लगाने के लिए कड़े पत्थर में छेद किए जाते हैं। बड़े पत्थर उठाने के लिए उत्थापक (लीवर) का काम भी इससे ले लिया जाता है।
निशानबंदी तथा स्थापन के औजार
[संपादित करें]निशानबंदी तथा स्थापन के औजार पत्थर की चिनाई के लिए भी वैसे ही होते हैं जैसे ईंट चिनाई के लिए, यथा कन्नी या करनी, सूत, साहुल, गुनिया, गज, पारा लेबिल या तलमापी, पाटा आदि।
उठाने के उपकरण
[संपादित करें]पत्थर उठाने के उपकरण विशेष प्रकार के होते हैं, जो बड़े बड़े पत्थर यथास्थान रखने के काम आते हैं। डोली या ल्यूइस, चुटकी या निपर्स और गंत्री इस संबंध में उल्लेखनीय हैं।
पकाई
[संपादित करें]खान से निकाले हुए ताजे पत्थर में रस बहुत होता है; इसलिए उसकी गढ़ाई आसानी से हो जाती है। हवा खाने पर रस सूख जाता है और पत्थर कठोर हो जाता है। खान पर ही गढ़ाई करने से अवांछित भार भी निकाल जाता है और ढुलाई का व्यय भी घट जाता है। किंतु यह आवश्यक है कि इमारत में लगने से पहले पत्थर भली भाँति हवा खा ले, जिससे वह पककर मजबूत हो ले। संत पाल (लंदन) के बड़े गिरजाघर के वास्तुक, सर क्रिस्टोफर रेन, ने इस संबंध में यह शर्त रखी थी कि खान से निकलने के बाद 3 साल तक पत्थर समुद्रतट पर खुला पड़ा रहे, तब कहीं वह गिरजे में लगने योग्य समझा जाएगा।
स्थापन
[संपादित करें]पत्थर जमाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि संधियाँ सही सही रखी जाएँ और सतह समतल हो। सतह उभरी हुई हो तो संधियाँ चौड़ी होती हैं। पत्थर भी डगमगाता रह सकता है। कत्तल लगा लगाकर इस प्रकार के पत्थर जमाना उचित नहीं है। सतह अवतल हो तो कोरों पर जोर पड़ता है, जिससे वह चटक सकती हैं और पपड़ी उखड़ सकती है। टूटी फूटी कोरोंवाले पत्थरों की चिनाई खराब दिखाई पड़ती है। बड़े बड़े पत्थर मसाले में जमाने से पहले सूखे ही यथास्थान रखकर देख लेना चाहिए कि ठीक बैठ जाते हैं कि नहीं। यह सावधानी रखनी चाहिए कि पत्थर टूटने न पाए और न पपड़ी ही उखड़े, क्योंकि फिर उसकी मरम्मत नहीं हो सकती। पत्थर सदा इस प्रकार जमाना चाहिए कि भार सदा प्राकृतिक नितल पर लंबवत् ही पड़े। इस प्रकार जहाँ केवल ऊर्ध्वाधर भार ही आता हो यहाँ पत्थर की प्राकृतिक परतें क्षैतिज रहनी चाहिए। लंबे खंभों आदि में लगाने के लिए उपयुक्त मोटाई की तह में से काटकर निकाला हुआ पत्थर छाँट लेना चाहिए। चिनाई में मसाला कम से कम लगाना चाहिए, किंतु सधियाँ पोली न रहनी चाहिए। यदि मुलायम किस्म का पत्थर हो, जैसे कच्चा बलुआ पत्थर या चूने का पत्थर, तो किसी भी पत्थर की लंबाई उसकी मोटाई के तीन गुने से अधिक न होनी चाहिए।
बंध
[संपादित करें]राजगीरी में उचित बंध का बहुत महत्व है। संगीन चिनाई मेंतो एक एक खंड भली भाँति बंधन में रहता है। वास्तुशिल्पी इसकी एक एक संधि का स्थान निश्चत कर देते हैं। ढोका चिनाई में टोड़े या धुर पत्थर लगाकर बंधन प्राप्त किया जाता है। धुर पत्थर आगे से पीछे तक काफी मोटे और चौड़े होने चाहिए। आम तौर से चौड़ाई ऊँचाई से ड्योढ़ी हो और दीवार की सतह पर इनका क्षेत्रफल सारे क्षेत्रफल के श्तक होना चाहिए। रद्देदार चिनाई में ये प्राय: पाँच पाँच फुट की दूरी पर लगाए जाते हैं और प्रत्येक रद्दे में स्थान बदल बदलकर विषम स्थिति में रखे जाते हैं।
जब संगीन चिनाई केवल सामने ही सामने होती है, तो वह 4 से 9 तक गहरी जाती है। दीवार का शेष ईंट चिनाई या ढोका चिनाई से ही बनाया जाता है। प्राय: इसपर पलस्तर कर दिया जाता है। सामने की ओर पुश्त की, दोनों चिनाइयों में उचित वैध रखना आवश्यक होता है।
राजगीरी के प्रकार
[संपादित करें]ढोका चिनाई प्राय: दो प्रकार की होती है :
- (1) रद्देदार चिनाई और
- (2) बेरद्दा चिनाई
रद्देवार चिनाई में कभी कभी कुछ थोड़ा बहुत गढ़कर चौरस किए हुए पत्थर लगाए जाते हैं। इसे रद्देवार, चौरस, ढोका चिनाई कहते हैं। दूसरी रद्देवार, अनगढ़, ढोका चिनाई कहलाती है। बेरद्दा चिनाई सो अनगढ़ ढोकों की ही होती है।
संगीन चिनाई भी पत्थर की गढ़ाई के अनुसार कई प्रकार की होती है। पत्थर की सभी सतहें टाँकी से बहुत बारीक गढ़ी हों और संधियां १/८ इंच से अधिक मोटी न हों, तो वह बारीक संगीन चिनाई कहलाती है। यदि गढ़ाई बहुत बारीक न हो और संधियाँ १/४ इंच मोटी हों, तो वह 'अधगढ़ संगीन चिनाई' होती है। कभी कभी इसके पत्थरों की बाहरी सतहों पर बारीक गढ़ाई करके एक हाशिया सा बना दिया जाता है और हाशिए के बीच का भाग अनगढ़ा ही छोड़ दिया जाता है। यह 'अनगढ़ संगीन चिनाई' कहलाती है; किंतु यदि पत्थरों की कोरों में लगभग एक इंच गहराई तक सलानी कर दी जाती है, अर्थात् पख मार दी जाती है, तो वह 'पखदार संगीन चिनाई' हो जाती है। कभी कभी दीवार के सिरों पर, या कभी कभी बीच में भी, स्तंभों के रूप में संगीन चिनाई करके शेष भाग में अनगढ़ पत्थरों की चिनाई के दिल्हे से बना दिए जाते हैं, जिसके रद्दे संगीन चिनाई के रद्दों से कम ऊँचे रहते हैं। दिल्हों की यह चिनाई 'पिंडक चिनाई' कहलाती है।
ईंट चिनाई
[संपादित करें]चूँकि एक स्थान पर लगनेवाली ईटें प्राय: एक जैसी होती हैं, इसलिए ईंट चिनाई के लिए अनेक प्रकार के बंध, या चालें, प्रयुक्त होती हैं। प्रत्येक चाल में यह ध्यान रखा जाता है कि खड़ी संधियाँ एक दूसरी के ऊपर न पड़ें, बल्कि कम से कम इतना हटकर हों जितना ईंट की लंबाई का चौथाई होता है। इतना दबाव प्राप्त करने के लिए प्रत्येक एकांतर रद्दे में किनारेवाले टोड़े के बाद एक डेली छोड़ी जाती है जो चौथाई ईंट के बराबर चौड़ी होती है।
बंधों, अर्थात् चालों, में सबसे अधिक प्रचलन टोड़ा-पट्टी चाल का है, जिसे अंग्रेजी चाल भी कहते हैं। इसमें टोड़ों ही टोड़ों के और पट्टियों ही पट्टियों के एक एक रद्दे क्रमश: एक दूसरे के बाद आते हैं। पट्टियों के रद्दों में भी, जहाँ कहीं भरती की आवश्यकता होती है, केवल टोड़े ही भरे जाते हैं। भीतर पट्टियाँ न भरनी पड़ें, इस उद्देश्य से डेढ़, ढाई, साढ़े तीन ईंट आदि की चिनाई में प्रत्येक रद्दे में एक और पट्टी की चाल होती है तो दूसरी ओर टोड़े की।
दूसरी चाल, जो अधिक प्रचलित है, फ्लेमिश चाल हे। इसमें प्रतयेक रद्दे में एकांतर क्रम से टोड़े और पट्टियाँ रखी जाती है। दीवार के दोनों ओर से फ्लेमिश कहलाती है। इसमें भीतरी संधियों के कुछ अंश सभी रद्दों में एक दूसरे के ऊपर ही आते हैं। इसलिए टोड़ा-पट्टी की चाल की अपेक्षा यह मजबूत कुछ कम होती है, यद्यपि दर्शनीय अधिक होती है। कभी कभी मजबूती और दर्शनीयता का समन्वय करते हुए, सामने की और फ्लेमिश और पुश्त में टोड़ा-पट्टी की चाल चली जाती है। इसे इकहरी फ्लेमिश चाल कहते हैं।
आधी ईंट की दीवार में टोड़े नहीं लग सकते; अत: इसमें प्रत्येक रद्दे में पट्टियाँ ही पट्टियाँ जोड़ काटकर रखी हैं। यह पट्टी चाल कहलाती है। बहुत चौड़ी दीवार में भरती केवल टोड़ों की ही होने से, लंबाई की दिशा में दीवार कुछ कमजोर रह जाती है। इसलिए हर तीन चार रद्दों के बाद, एक रद्दे की भरती में, ईटें तिरछी रख दी जाती हैं। इसके विकर्ण चाल कहते हैं। यदि सारी ईटें एक ही दिशा में तिरछी न करके, एकांतर से समकोण पर घुमा घुमा कर लहरें जैसी बना दी जायें, तो वह लहरिया चाल हो जाती है।
ईंट-चिनाई में भी संधियाँ यथासंभव कम चौड़ी होनी चाहिए। प्रथम श्रेणी की चिनाई वह है जिसमें संधियां 1/4 इंच ही चौड़ी हों। द्वितीय श्रेणी की चिनाई में संधियाँ 3/8 इंच तक मोटी और तृतीय श्रेणी की चिनाई में संधियाँ असमान और 1/2 इंच तक मोटी हो सकती हैं। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ईटों के दिल्हे ऊपर की ओर हों ताकि उनमें मसाला भली भाँति भर जाए और चिनाई पोली न रह जाए।
राजगीरी संबंधी कुछ पारिभाषिक शब्द
[संपादित करें]अनेक पारिभाषिक शब्द राजगीरी में प्राय: एक जैसे अर्थों में प्रयुक्त होते हैं, जैसे चिनाई चाहे पत्थर की हो या ईंट की। दीवार की सामने दिखलाई पड़नेवाली खड़ी सतह 'सामना' कहलाती है और उसकी पीछे की ओर की खड़ी सतह 'पुश्त'। दीवार के बीच का भाग, जो सामना और पुश्त के मध्य में होता है, 'भरती' कहलाता है। पत्थर (या ईंट) की नीचेवाली सतह, जिसके बल वह रद्दे में बैठता है, 'नितल' कहलाती है। पत्थर के बाहर की वे सतहें जो सामना और नितल के लंबवत् होती हैं, 'पार्श्व' कहलाती है। मसाले के क्षैतिज जोड़, या वे जोड़ जिनपर भार लंबवत् पड़ता है, 'नितल संधियाँ' हैं और जो जोड़ नितल संधियों तथा सामना के लंबवत् होते हैं, 'पार्श्व संधियाँ', या केवल संधियाँ कहलाते हैं।
पत्थर का वह खंड, या ईंट, जिसकी लंबाई सामने पर लंबवत् पड़ती है, 'टोड़ा' और जिसकी लंबाई सामने के समांतर पड़ती है, 'पट्टी' कहलाता है। 'धुर पत्थर' वह है जो दीवार के सामने से पुश्त तक जाए। 'कोनिया', या कोण पिंडक, वे ईटें या खंड हैं जो किसी रचना में दीवारों के बहरी कोनों पर लगते हैं। कोनिया के पश्चात् टोड़ों के रद्दों में एक टुकड़ा लगाना पड़ता है, जिससे आगे ईंट रखने पर संधि दब जाए और चढ़ाव मिल जाए। यह टुकड़ा 'डैली' कहलाता है। यदि ईंट लंबाई की दिशा में इस प्रकार काटी जाए कि प्रत्येक खंड की चौड़ाई पूरी ईंट की चौड़ाई की आधी रह जाए, तो वह खंड 'मादा डेली' होगा, किंतु यदि खंड की चौड़ाई एक ओर तो पूरी हो और दूसरी ओर आधी, तो वह 'नर डेली' कहलाएगा। 'खंडा' ईंट का आधा होता है, जिसकी चौड़ाई पूरी ईंट की चौड़ाई के बराबर होती है। 'कत्तल' वे छोटे छोटे टुकड़े हैं, जो चिनाई के भीतर की खाली जगह भरने के काम आते हैं। ईंट की एक सतह पर प्राय: एक गड्ढा बना रहता है, जिसमें निर्माता अपना नाम और संवत् आदि लिख देते हैं, इसे 'दिल्हा' कहते हैं। दिल्हे से ईंट का वजन कुछ कम हो जाता है और मसाले से उसकी पकड़ बढ़ जाती है।
चिनाई की प्रत्येक क्षैतिज परत, जो दो क्रमागत नितल संधियों के बीच में होती है, 'रद्दा' कहलाती है। प्रत्येक रद्दे में पत्थरों, या ईटों के रखने की विशिष्ट व्यवस्था, जिससे वे परस्पर भली भाँति बँधे रहें, 'बंध या चाल' कहलाती है। 'किंगरी रद्दा' आगे निकला हुआ क्षैतिज रद्दा है, जिसके कारण बारिश का पानी नीचे की दीवार की सतह पर बहने नहीं पाता। यह प्राय: अलंकरणयुक्त होता है और प्रत्येक छादनतल पर लगाया जाता है। 'ओलती रद्दा' सबसे ऊपरी रद्दा है, जो छत के ओलती सिरे के नीचे होता है। 'निकसा रद्दा' प्राय: किसी संरचनात्मक आवश्यकता की पूर्ति के लिए, जैसे दासा आदि रखने के लिए, दीवार से कुछ बाहर निकलता हुआ लगाया जाता है। 'मुंडेर' छत से ऊपर या पुल की पाटन से ऊपर उठाई हुई नीची दीवार को कहते हैं। 'शीर्षिका' दीवार का सबसे ऊपरी रद्दा है, जो खुला हुआ होता है और वर्षा के पानी से नीचे की दीवार की रक्षा करता है। अपने उद्देश्य में सफल होने के लिए शीर्षिका की चौड़ाई दीवार की चौड़ाई से प्राय: कुछ अधिक रखी जाती है और बढ़े हुए भागों में नीचे की ओर कभी कभी तोता या टपक बन दिया जाता है, ताकि पानी दीवार की सतह पर न बहकर उससे दूर ही टपके। इनकी ऊपर की सतह भी कभी कभी बीच से दोनों ओर को ढालू रखी जाती है। गोलार्ध, या कमानीदार, या अन्य अनेक प्रकार की काटवाली शीर्षिकाएँ भी होती हैं। 'कार्निस' अलंकरणयुक्त बाहर निकलता हुआ रद्दा है, जो प्राय: छत के पास होता है। 'दाब रद्दा' कार्निस के ऊपर लगा हुआ वह रद्दा है जो उसे दबाए रहता है, ताकि दीवार से बाहर निकली होने के कारण कार्निस पलटकर गिर न जाए।
किसी दरवाजे, या मोखे, की बर्ग़्लो पाखा कहलाती हैं। ये प्राय: गुनियाबत, किंतु कभी कभी तिरछी भी होती हैं। इन्हीं में दरवाजे, या खिड़कियों की चौखटें कसी जाती हैं। मोखों की नीचेवाली सतह 'देहल' कहलाती है। इसी पर चौखटें खड़ी की जाती हैं।
'स्तंभ या खंभा', किसी धरन, या सरदल को आलंब देनेवाला खड़ा अवयव है, जो तलचित्र (cross section) में वर्गाकार, आयताकार, वृत्ताकार, या बहुभुजी हो सकता है। किसी दीवार में जुड़ा हुआ और उसकी सतह से कुछ थोड़ा सा आगे निकला हुआ खंभा भित्तिस्तंभ कहलाता है। किसी पुल का पाटन सँभालनेवाले बीच के अवयव 'पाए' और किनारेवाले 'अंत्याधार, या पीलपाये' कहलाते हैं। ढालदार, या सीढ़ीदार, चिनाई, जो किसी लंबी दीवार से आगे निकली रहती है और उसे किसी डाक या छत की ठेल के विरुद्ध बगली सहारा देती है, 'पुश्ता' कहलाती है। डाट के बीच के पत्थर को 'चाभी' कहते हैं और अन्य पत्थर डाटपत्थर कहलाते हैं।
इन्हें भी देखें
[संपादित करें]- ईंट का काम (ब्रिकवर्क)
- डाटदार पुल
बाहरी कड़ियाँ
[संपादित करें]- Masonry project on medieval bridge
- Professional Masonry Installation
- Mason Contractors Association of America
- International Masonry Institute
- International Union of Bricklayers and Allied Craftworkers
- National Concrete Masonry Association
- Information on design and analyses of masonry walls
- Masonry Institute of America
- An illustrated glossary of the terms used masonry construction.